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मैं ने काग़ज़ पे सजाए हैं जो ताबूत न खोल | शाही शायरी
maine kaghaz pe sajae hain jo tabut na khol

ग़ज़ल

मैं ने काग़ज़ पे सजाए हैं जो ताबूत न खोल

रशीद क़ैसरानी

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मैं ने काग़ज़ पे सजाए हैं जो ताबूत न खोल
जी उठे लफ़्ज़ तो मैं ख़ौफ़ से मर जाऊँगा

कौन ख़ुशबू से हवाओं का बदन छीनता है
तू मिरे साथ रहेगा मैं जिधर जाऊँगा

रेग-ए-साहिल से रही अपनी शनासाई तो फिर
एक दिन गहरे समुंदर में उतर जाऊँगा

चाँद-तारों की तरह मैं भी हूँ गर्दिश में 'रशीद'
हाँ अगर तू ने पुकारा तो ठहर जाऊँगा