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मैं नहीं हूँ नहीं कहीं भी नहीं | शाही शायरी
main nahin hun nahin kahin bhi nahin

ग़ज़ल

मैं नहीं हूँ नहीं कहीं भी नहीं

अकरम नक़्क़ाश

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मैं नहीं हूँ नहीं कहीं भी नहीं
अब कोई आसमान है न ज़मीं

एक दुनिया हुई है ज़ेर-ए-नगीं
शह-नशीं हो गया है ख़ाक-नशीं

ये सुकूँ भी हुआ मलाल के साथ
वो बहर-तौर जी रहा है यहीं

बार-हा तू ने ख़्वाब दिखलाए
बार-हा हम ने कर लिया है यक़ीं

एक वीराना था बसा न कभी
बस्तियाँ हम से गो हज़ार बसीं

जैसे पानी पे नक़्श हो कोई
रौनक़ें सब अदम-सबात रहीं

ग़ुर्फ़ा-ए-दर्द किस ने खोल दिया
तू तो अब मेरे आस-पास नहीं