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मैं किस से करता यहाँ गुफ़्तुगू कोई भी न था | शाही शायरी
main kis se karta yahan guftugu koi bhi na tha

ग़ज़ल

मैं किस से करता यहाँ गुफ़्तुगू कोई भी न था

कृष्ण कुमार तूर

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मैं किस से करता यहाँ गुफ़्तुगू कोई भी न था
नहीं था मेरे मुक़ाबिल जो तू कोई भी न था

ये इज्ज़-ए-ज़ात था या इर्तिफ़ा-ए-हुस्न-ए-नज़र
कभी कभी तो मिरे चार सू कोई भी न था

अजीब उस की है महफ़िल कि उस की महफ़िल में
पुर-इम्तियाज़ थे सब सुर्ख़-रू कोई भी न था

मैं क्या बताऊँ कि उस ख़ाक से हूँ वाबस्ता
ज़मीन-ए-दिल में जहाँ नम नुमू कोई भी न था

ये कैसी बस्ती है वारिद कहाँ हुआ हूँ जहाँ
नज़ीर-ए-सिलसिला-ए-हाव-हू कोई भी न था

चलो चलें कि यक़ीन ओ गुमाँ की दुनिया में
नफ़स नफ़ीस सभी दिल लहू कोई भी न था

मैं ख़ुद ही अपने बराबर खड़ा हुआ था 'तूर'
भरे जहान में मेरा अदू कोई भी न था