मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूँ
गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ
ज़माने और कुछ दिन सब्र कर ले
अभी तो ख़ुद से धोके खा रहा हूँ
बढ़ा दे लौ ज़रा तन्हाइयों की
शब-ए-फ़ुर्क़त में बुझता जा रहा हूँ
इसी दुनिया में जी लगता था मेरा
इसी दुनिया से अब घबरा रहा हूँ
ये नादानी नहीं तो क्या है 'दानिश'
समझना था जिसे समझा रहा हूँ
ग़ज़ल
मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ
मदन मोहन दानिश