मैं जिस का मुंतज़िर हूँ वो मंज़र पुकार ले
शायद निकल के जिस्म से बाहर पुकार ले
मैं ले रहा हूँ जाएज़ा हर एक लहर का
क्या जाने कब ये मुझ को समुंदर पुकार ले
सदियों के दरमियान हूँ मैं भी तो इक सदी
इक बार मुझ को अपना समझ कर पुकार ले
मैं फिर रहा हूँ शहर में सड़कों पे ग़ालिबन
आवाज़ दे के मुझ को मिरा घर पुकार ले
शीशे की तरह वक़्त के हाथों में हूँ हनूज़
कब जाने हादसात का पत्थर पुकार ले
वो लम्हा जिस की ज़ेहन-ए-'सबा' को तलाश है
रोने के एहतिमाम में हँस कर पुकार ले
ग़ज़ल
मैं जिस का मुंतज़िर हूँ वो मंज़र पुकार ले
अलीम सबा नवेदी