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मैं जब भी तालिब-ए-नामूस होने लगता हूँ | शाही शायरी
main jab bhi talib-e-namus hone lagta hun

ग़ज़ल

मैं जब भी तालिब-ए-नामूस होने लगता हूँ

जावेद नसीमी

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मैं जब भी तालिब-ए-नामूस होने लगता हूँ
नए लिबासों में मल्बूस होने लगता हूँ

दिखाने लगता है वो ख़्वाब आसमानों के
ज़मीं से जब भी मैं मानूस होने लगता हूँ

जलाया जिस ने मिरा घर उसी दिए के लिए
हवा चले तो मैं फ़ानूस होने लगता हूँ

उछाल देता है पत्थर वो ठहरे पानी में
मैं पुर-सुकून जो महसूस होने लगता हूँ

ये किस की प्यास की ख़ातिर कभी कभी 'जावेद'
मैं एक क़तरे से क़ामूस होने लगता हूँ