मैं एक शाम जो लौटा ग़ुबार-ए-जाँ बन कर
बिखर के रह गया राहों की दास्ताँ बन कर
मैं ख़ुद में गूँजता हूँ बन के तेरा सन्नाटा
मुझे न देख मिरी तरह बे-ज़बाँ बन कर
मैं अपने आप का वो शोर था तुझे पा कर
तुझे डरा दिया आवाज़-ए-बे-अमाँ बन कर
हर एक शख़्स है अफ़्वाह आप ही अपनी
हर इक को जानता है हर कोई गुमाँ बन कर
तमाम सम्तें पलटती सी जान पड़ती हैं
पहुँच रहा हूँ कहाँ दर्द-ए-ला-मकाँ बन कर
ये किस को ढूँड रहा हूँ मैं एक अर्से से
ख़ुद अपना ही कोई भटका हुआ निशाँ बन कर
जो ख़ुद थे अपनी सदा का यक़ीं वही तो हैं हम
पहाड़ जैसे कोई उड़ गया धुआँ बन कर
तू कर के रद्द मुझे ख़ुद को ज़रा क़ुबूल तो कर
खड़ा हूँ तेरे लिए एक इम्तिहाँ बन कर
ख़ुद अपनी बात का दुख बन के रह न जा ऐ 'तल्ख़'
हर एक दिल में समा जा ग़म-ए-जहाँ बन कर
ग़ज़ल
मैं एक शाम जो लौटा ग़ुबार-ए-जाँ बन कर
मनमोहन तल्ख़