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मैं एक अंधे कुएँ का क़ैदी किसे मिलूँगा | शाही शायरी
main ek andhe kuen ka qaidi kise milunga

ग़ज़ल

मैं एक अंधे कुएँ का क़ैदी किसे मिलूँगा

मुग़नी तबस्सुम

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मैं एक अंधे कुएँ का क़ैदी किसे मिलूँगा
कहाँ मुझे ढूँढने चली है नजात मेरी

ख़जालत-ए-दरगुज़र से लब पर दुआ न ठहरी
दर-ए-समाअत से लौट आई है रात मेरी

मैं किस के क़ौल ओ क़रार से अपने अश्क पोछूँ
मुकर गई है ख़ुद अपने वादों से ज़ात मेरी

है तिश्नगी का नया ही इक ज़ाइक़ा लबों पर
सराब अंदर सराब गर्दां हयात मेरी

तनाब-ए-ख़ेमा के टूटने तक क़याम मेरा
कि शाख़-ए-आहू पे आज भी है बरात मेरी