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मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ | शाही शायरी
main DhunD lun agar us ka koi nishan dekhun

ग़ज़ल

मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ

सग़ीर मलाल

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मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ
बुलंद होता फ़ज़ा में कहीं धुआँ देखूँ

अबस है सोचना ला-इंतिहा के बारे में
निगाहें क्यूँ न झुका लूँ जो आसमाँ देखूँ

बहुत क़दीम है मतरूक तो नहीं लेकिन
हवा जो रेत पे लिखती है वो ज़बाँ देखूँ

है एक उम्र से ख़्वाहिश कि दूर जा के कहीं
मैं ख़ुद को अजनबी लोगों के दरमियाँ देखूँ

ख़याल तक न रहे राएगाँ गुज़रने का
अगर 'मलाल' इन आँखों को मेहरबाँ देखूँ