मैं बात कौन से पैरा-ए-बयाँ में करूँ
जो सोचता हूँ उसे किस ज़बान में लिक्खूँ
कतर दिए हैं ज़माने ने पँख ख़्वाबों के
भरा है साग़र-ए-हसरत में आरज़ूओं का ख़ूँ
नहीं है कुश्ता-ए-ख़ूबाँ का ख़ूँ-बहा कोई
ऐ अहल-ए-शौक़ न खाओ फ़रेब-ए-हर्फ़-ए-फ़ुसूँ
कभी है चाँद का हाला नक़ाब-ए-लाला कभी
अनीले रंग दिखाती है ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-गूँ
ज़िमाम-ए-राहिला-ए-दिल ख़िरद के हाथ में दो
कि मारती है हवस इस नवाह में शब-ख़ूँ
अब इस को ख़ाना-ख़राबी कहो कि मामूरी
ज़मीं में साथ ख़ज़ाने के धँस गया क़ारूँ
बनू-तमीम हो तुम में सलामा-बिन-जिंदल
बिला-जवाज़ तुम्हारी सना मैं कैसे करूँ
परिंदगान-ए-बयाबाँ करें वसीला जिसे
मैं उस अमीन के ख़िर्मन के ख़ोशा-चीनों में हूँ
शहीद-ए-इल्म भी हूँ ज़िंदा-ए-मोहब्बत भी
ब-फ़ैज़-ए-ज़ौक़-ए-सलीम ओ तबीअत-ए-मौज़ूँ
शरीक-ए-ज़ुमरा-ए-मेहनत-कशाँ है शाएर भी
बहाए-सद्र-ए-नफ़स ख़ूँ-चकाँ है इक मज़मूँ
अनाड़ी-पन न कहो मेरी सादा-लौही को
हूँ नौ-नियाज़ मगर कोहना-मश्क़ जज़्ब-ओ-जुनूँ
बला-ए-जब्र भी है पा-ए-इख़्तियार भी है
क़ुसूर-वार हूँ मैं या सदा-ए-कुन-फ़यकूँ
वरा-ए-फ़र्रा-ए-फ़रहंग देखो रंग-ए-सुख़न
अबुल-कलाम नहीं मैं अबुल-मअानी हूँ
ग़ज़ल
मैं बात कौन से पैरा-ए-बयाँ में करूँ
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद