मैं अपने इश्क़ को ख़ुश-एहतिमाम करता हुआ
मक़ाम-ए-शुक्र पे पहुँचा कलाम करता हुआ
ये गर्द-बाद सलामत गुज़रना चाहता है
मिरे चराग़ पे वहशत तमाम करता हुआ
गुज़र रहा हूँ किसी क़रिया-ए-मलामत से
क़दीम सिलसिला-दारी को आम करता हुआ
तो फिर ये कौन है निस्फ़ुन्नहार के हंगाम
क़याम ओ रक़्स की हालत में शाम करता हुआ
कभी तो खुल के बता ऐ मिरी रियाज़त-ए-मर्ग
मैं कैसा लगता हूँ फ़िक्र-ए-दवाम करता हुआ
ज़मानों बा'द भी दश्त-ए-बला में मेरा 'हुसैन'
दिखाई देता है हुज्जत तमाम करता हुआ
ग़ज़ल
मैं अपने इश्क़ को ख़ुश-एहतिमाम करता हुआ
अब्बास ताबिश