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मैं अपने-आप को आवाज़ दे रहा हूँ अभी | शाही शायरी
main apne-ap ko aawaz de raha hun abhi

ग़ज़ल

मैं अपने-आप को आवाज़ दे रहा हूँ अभी

लुत्फ़ुर्रहमान

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मैं अपने-आप को आवाज़ दे रहा हूँ अभी
ग़ज़ल के हाथ में इक साज़ दे रहा हूँ अभी

इक एक हर्फ़ मिरी तिश्नगी का ज़ामिन है
इक एक हर्फ़ को एजाज़ दे रहा हूँ अभी

हवा की ज़द पे कोई बर्ग-ए-ज़र्द है कब से
सो उस के सोज़ को इक साज़ दे रहा हूँ अभी

मैं दर-ब-दर हूँ अभी अपनी जुस्तुजू में बहुत
मैं अपने लहजे को अंदाज़ दे रहा हूँ अभी

थमा के हाथ में उन के फ़ज़ीलतों की सनद
मैं जाहिलों को भी एज़ाज़ दे रहा हूँ अभी

अजब तिलिस्म है अक्स-ए-नियाज़ ओ नक़्श-ए-हवस
मैं रब्त-ए-शौक़ को आग़ाज़ दे रहा हूँ अभी