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मैं अगर फ़िक्र के शह-पर से अलग हो जाऊँ | शाही शायरी
main agar fikr ke shah-par se alag ho jaun

ग़ज़ल

मैं अगर फ़िक्र के शह-पर से अलग हो जाऊँ

सीन शीन आलम

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मैं अगर फ़िक्र के शह-पर से अलग हो जाऊँ
अपने अंदर के सुख़नवर से अलग हो जाऊँ

आइना गर्द से बातिल की निकल आएगा
हक़ की ताईद में लश्कर से अलग हो जाऊँ

आसमाँ भी नहीं रोएगा लहू के आँसू
मैं अगर शाम के मंज़र से अलग हो जाऊँ

तपते सहरा की ज़मीं को भी ज़रूरत है मिरी
लेकिन अब कैसे समुंदर से अलग हो जाऊँ

ज़लज़ले इतने मिरी ज़ात में पोशीदा हैं
ये भी मुमकिन है कि मेहवर से अलग हो जाऊँ

बाँट लेना कभी तक़्सीम न करना मुझ को
ये न होगा कि बराबर से अलग हो जाऊँ