मय-ख़ाने पर काले बादल जब घिर घिर कर आते हैं
हम भी आँखों के पैमाने भर भर कर छलकाते हैं
मैं जिन को अपना कहता हूँ कब वो मिरे काम आते हैं
ये सारा संसार है सपना सब झूटे रिश्ते-नाते हैं
तन्हाई के बोझल लम्हे हम इस तरह बिताते हैं
दिल हम को देता है तसल्ली हम दिल को समझाते हैं
जीवन की गुत्थी का सुलझना काम है इक ना-मुम्किन सा
गिर्हें पड़ती ही जाती हैं हम जितना सुलझाते हैं
उन की क़िस्मत में जलना है कौन उन से कहता है जलें
परवाने दीपक पर आ कर अपने-आप जल जाते हैं
जीवन बीता लेकिन अब तक मैं न समझ पाया ये भेद
बीते दिनों की याद आते ही आँसू क्यूँ भर आते हैं
वो जब अपना सर ढकते हैं खुल जाते हैं उन के पैर
जो अपनी चादर से ज़ियादा पैर अपने फैलाते हैं
होता है महसूस ये 'आजिज़' शायद उस ने दस्तक दी
तेज़ हवा के झोंके जब दरवाज़े से टकराते हैं
ग़ज़ल
मय-ख़ाने पर काले बादल जब घिर घिर कर आते हैं
आजिज़ मातवी