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मय-ख़ाना है बिना-ए-शर-ओ-ख़ैर तो नहीं | शाही शायरी
mai-KHana hai bina-e-shar-o-KHair to nahin

ग़ज़ल

मय-ख़ाना है बिना-ए-शर-ओ-ख़ैर तो नहीं

एजाज़ वारसी

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मय-ख़ाना है बिना-ए-शर-ओ-ख़ैर तो नहीं
ऐ शैख़-ओ-बरहमन हरम-ओ-दैर तो नहीं

क़ासिद को तक रहा हूँ बजाए जवाब-ए-ख़त
कम्बख़्त ये न कह दे कहीं ख़ैर तो नहीं

अपनों का शिकवा किस लिए आए ज़बान पर
अहबाब के सितम सितम-ए-ग़ैर तो नहीं

आपस में क्यूँ हैं बर-सर-ए-पैकार अहल-ए-शहर
देखो यहाँ कहीं हरम-ओ-दैर तो नहीं

ऐ शैख़ सिर्फ़ शिकवा-ए-पिंदार ज़ोहद है
वर्ना मुझे जनाब से कुछ बैर तो नहीं

महव-ए-ख़िराम ग़ुंचा-ओ-गुल देख-भाल कर
पामाली-ए-बहार है ये सैर तो नहीं

बंदा-नवाज़ आप और इज़्हार-ए-शुक्रिया
'एजाज़' आप का है कोई ग़ैर तो नहीं