मय-कदे में जो तिरे हुस्न का मज़कूर हुआ
संग-ए-ग़ैरत से मिरा शीशा-ए-दिल चूर हुआ
एक तो आगे ही था हुस्न पर अपने नाज़ाँ
आईना देख के वो और भी मग़रूर हुआ
सुब्ह होते ही हुआ मुझ से जुदा वो मह-रू
रोज़ गोया मिरे हक़ में शब-ए-दीजूर हुआ
तेग़ मत खींच कि एक जुम्बिश-ए-अब्रू बस है
गर मिरा क़त्ल ही ज़ालिम तुझे मंज़ूर हुआ
अज़-पए-दाग़-ए-दिल-ए-बादा-परसताँ 'बेदार'
पुम्बा-ए-शीशा-ए-मय मर्हम-ए-काफ़ूर हुआ
ग़ज़ल
मय-कदे में जो तिरे हुस्न का मज़कूर हुआ
मीर मोहम्मदी बेदार