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मय-कदे में जो तिरे हुस्न का मज़कूर हुआ | शाही शायरी
mai-kade mein jo tere husn ka mazkur hua

ग़ज़ल

मय-कदे में जो तिरे हुस्न का मज़कूर हुआ

मीर मोहम्मदी बेदार

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मय-कदे में जो तिरे हुस्न का मज़कूर हुआ
संग-ए-ग़ैरत से मिरा शीशा-ए-दिल चूर हुआ

एक तो आगे ही था हुस्न पर अपने नाज़ाँ
आईना देख के वो और भी मग़रूर हुआ

सुब्ह होते ही हुआ मुझ से जुदा वो मह-रू
रोज़ गोया मिरे हक़ में शब-ए-दीजूर हुआ

तेग़ मत खींच कि एक जुम्बिश-ए-अब्रू बस है
गर मिरा क़त्ल ही ज़ालिम तुझे मंज़ूर हुआ

अज़-पए-दाग़-ए-दिल-ए-बादा-परसताँ 'बेदार'
पुम्बा-ए-शीशा-ए-मय मर्हम-ए-काफ़ूर हुआ