महसूस जो होता है कि हम हैं भी नहीं भी
देखो तो जो हम ऐसे हों दो चार कहीं भी
औहाम के असरार भी कुछ कम नहीं गहरे
चक्कर में बहुत आए हैं कुछ अहल-ए-यक़ीं भी
अज़-रोज़-ए-अज़ल है कि नहीं है का है महशर
और इस का जवाब आज भी हाँ भी है नहीं भी
जो बात समझ ले वो कहीं भी न मिलेगा
घूम आओ जिधर चाहो चले जाओ कहीं भी
इक़रार भी इंकार भी पर तोल रहा है
पर्वाज़ से लर्ज़ां है मिरी हाँ भी नहीं भी
आफ़ाक़ झुका आए जहाँ बैठे हों चुप-चाप
बस हम से बहुत तंग फ़लक भी है ज़मीं भी
ता-हद्द-ए-नज़र नक़्श-ए-क़दम भी नहीं मिलता
हर संग से ज़ाहिर कोई रूदाद-ए-जबीं भी
जो नक़्श-ए-क़दम वक़्त के हैं रेत पे ऐ 'तल्ख़'
कुछ ऐसे फ़लक पर भी हैं कुछ ज़ेर-ए-ज़मीं भी
ग़ज़ल
महसूस जो होता है कि हम हैं भी नहीं भी
मनमोहन तल्ख़