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महरम-ए-राज़-ए-हरम हूँ वाक़िफ़-ए-बुत-ख़ाना हूँ | शाही शायरी
mahram-e-raaz-e-haram hun waqif-e-but-KHana hun

ग़ज़ल

महरम-ए-राज़-ए-हरम हूँ वाक़िफ़-ए-बुत-ख़ाना हूँ

करम हैदरी

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महरम-ए-राज़-ए-हरम हूँ वाक़िफ़-ए-बुत-ख़ाना हूँ
मैं रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत का मगर दीवाना हूँ

मैं न बे-क़ीमत ख़ज़फ़ हूँ और न ला'ल-ए-बे-बहा
मैं तो अरबाब-ए-नज़र के ज़र्फ़ का पैमाना हूँ

मेरी रग रग में है मौज-ए-ज़िंदगी रक़्साँ मगर
इक लब-ए-जाँ-बख़्श को तरसा हुआ पैमाना हूँ

हूँ ब-ज़ाहिर नक़्श कुछ बिखरे हुए अल्फ़ाज़ का
तुम जो ऐ जान-ए-जहाँ समझो तो इक अफ़्साना हूँ

मेरी पामाली के चर्चे तुम भी सुन लोगे कभी
अपने गुलशन में हूँ लेकिन सब्ज़ा-ए-बेगाना हूँ

ढूँडने निकलेंगे मुझ को एक दिन अहल-ए-वफ़ा
दफ़्न है गंजीना-ए-दिल जिस में वो वीराना हूँ