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मह-रुख़ जो घरों से कभी बाहर निकल आए | शाही शायरी
mah-ruKH jo gharon se kabhi bahar nikal aae

ग़ज़ल

मह-रुख़ जो घरों से कभी बाहर निकल आए

अब्बास ताबिश

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मह-रुख़ जो घरों से कभी बाहर निकल आए
पस-मंज़र-ए-शब से कई मंज़र निकल आए

तुम अपनी ज़बानों से उसे चाटते रहना
क्या जानिए दीवार में कब दर निकल आए

क्या उन को डुबोए किसी दरिया की रवानी
ये शहर तो कूज़े के समुंदर निकल आए

दिन भर तो रहे महर-ए-जहाँ-ताब की सूरत
जब रात पड़ी भेस बदल कर निकल आए

आए हैं अगरचे कई चेहरों से उलझ कर
लगता है कि हम आँख बचा कर निकल आए

आवाज़ तो दो परतव-ए-महताब को 'ताबिश'
मुमकिन है वो तालाब से बाहर निकल आए