मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
हम सभी मेहमान थे वाँ तू ही साहब-ख़ाना था
वाए नादानी कि वक़्त-ए-मर्ग ये साबित हुआ
ख़्वाब था जो कुछ कि देखा जो सुना अफ़्साना था
हैफ़! कहते हैं हुआ गुलज़ार ताराज-ए-ख़िज़ाँ
आश्ना अपना भी वाँ इक सब्ज़ा-ए-बेगाना था
हो गया मेहमाँ-सरा-ए-कसरत-ए-मौहूम आह!
वो दिल-ए-ख़ाली कि तेरा ख़ास ख़ल्वत-ख़ाना था
भूल जा ख़ुश रह अबस वे साबिक़े मत याद कर
'दर्द'! ये मज़कूर क्या है आश्ना था या न था
ग़ज़ल
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
ख़्वाजा मीर 'दर्द'