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माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम | शाही शायरी
mana ki zalzala tha yahan kam bahut hi kam

ग़ज़ल

माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम

पी पी श्रीवास्तव रिंद

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माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम
बस्ती में बच गए थे मकाँ कम बहुत ही कम

मेरे लहू का ज़ाइक़ा चखता रहा था दर्द
तन्हाइयाँ थीं रात जहाँ कम बहुत ही कम

काँटों को सींचती रही परछाइयों की फ़स्ल
जब धूप का था नाम-ओ-निशाँ कम बहुत ही कम

आँगन में धूप धूप को ओढ़े उदासियाँ
घर में थे ज़िंदगी के निशाँ कम बहुत ही कम

मफ़्लूज रात कर्ब के बिस्तर पे लेट कर
करती है अब तो आह-ओ-फ़ुग़ाँ कम बहुत ही कम

क्यूँ दोस्तों की भीड़ से घबरा न जाए दिल
दुश्मन तो रह गए हैं यहाँ कम बहुत ही कम

हम जब से पत्थरों की तिजारत में लग गए
है दोस्ती-ए-शीशा-गराँ कम बहुत ही कम

इतनी अज़ीयतों से गुज़रने के बाद 'रिंद'
ख़ुद पर है ज़िंदगी का गुमाँ कम बहुत ही कम