मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
ऐसा गया कि फेर न पाई ख़बर कहीं
आलम में हैं असीर मोहब्बत के हर कहीं
लेकिन सितम किसू पे नहीं इस क़दर कहीं
खोली थी चश्म-दीद को तेरी प जूँ हुबाब
अपने तईं मैं आप न आया नज़र कहीं
जूँ ग़ुंचा फ़िक्र जम्अ न कर टुक तू गुल को देख
क़िस्मत की खो सके है परेशानी ज़र कहीं
रहने दो मेरी नाश को हो जाए ता-ग़ुबार
ले जाएगी उड़ा के नसीम-ए-सहर कहीं
मसरफ़ है सब ये बालिश-ए-सय्याद का तिरे
बिस्मिल न भरियो ख़ून से तू बाल-ओ-पर कहीं
रोती है क्या गुलों को तू शबनम इधर तो देख
टुकड़े है इस तरह से किसी का जिगर कहीं
करता था कल गली में वो अपनी ख़िराम-ए-नाज़
इस में जो आ के पड़ती है मुझ पर नज़र कहीं
कहने लगा ये देख के अहवाल को मिरे
बद-नाम तू किसी के तईं याँ न कर कहीं
क्या हत्या तुझे यहीं देनी है ऐ अज़ीज़
इतना पड़ा है मुल्क-ए-ख़ुदा जा के मर कहीं
'क़ाएम' ये फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-'सौदा' है वर्ना मैं
तरही ग़ज़ल से 'मीर' की आता था बर कहीं
ग़ज़ल
मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
क़ाएम चाँदपुरी