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माहौल तीरगी का मुक़द्दर बढ़ा गया | शाही शायरी
mahaul tirgi ka muqaddar baDha gaya

ग़ज़ल

माहौल तीरगी का मुक़द्दर बढ़ा गया

रहबर जौनपूरी

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माहौल तीरगी का मुक़द्दर बढ़ा गया
घर का चराग़ घर के उजाले को खा गया

देखा है हम ने जलने लगी हैं वो बस्तियाँ
जिन बस्तियों से हो के कोई रहनुमा गया

इंसानियत ग़रीब भटकती है दर-ब-दर
हर शख़्स अपने ख़ौल-ए-अना में समा गया

हम ने पिलाया ख़ून हर इक इंक़लाब को
हम को ही इंक़लाब का दुश्मन कहा गया

'रहबर' ये ज़िंदगी थी बहुत मो'तबर मगर
मेरा वजूद मुझ को तमाशा बना गया