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माह-रू निकले है नित उजली तरह | शाही शायरी
mah-ru nikle hai nit ujli tarah

ग़ज़ल

माह-रू निकले है नित उजली तरह

उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला

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माह-रू निकले है नित उजली तरह
इस सबब रौशन है दिल पुतली तरह

सुन मिरा रोना हुआ टुक मेहरबाँ
यार ने बरसात में बदली तरह

ग़म्ज़ा की शमशीर चमकाता है वो
क्यूँ न हो दिल मुज़्तरिब बिजली तरह

मच्छी देता नईं मुझे वो बहर सूँ
छोड़ दी उस ने मगर अगली तरह

क्यूँ मिरे आगे अकड़ चलता है आज
मुझ को भूली नईं तिरी पिछली तरह

सर-निगूँ है सर्व-क़द की फ़िक्र में
बेद ने मजनूँ की सब लैली तरह

इश्क़ ने आ कर पछाड़ा दिल कतीं
गुर्ग नीं आहू सीं की जंगली तरह

मुझ दिवाने की नज़र में ऐ परी
ताश और कमख़ाब है कमली तरह

गाली दे कर मुस्कुराता है वो शोख़
'मुबतला' अब यूँ नई निकली तरह