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माह-ए-नौ पर्दा-ए-सहाब में है | शाही शायरी
mah-e-nau parda-e-sahab mein hai

ग़ज़ल

माह-ए-नौ पर्दा-ए-सहाब में है

सख़ी लख़नवी

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माह-ए-नौ पर्दा-ए-सहाब में है
या कि अबरू कोई नक़ाब में है

रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
और पसीने की बू गुलाब में है

आज साक़ी शिकार खेलेगा
बत-ए-मय काँसा-ए-शराब में है

तूल-ए-रोज़-ए-फ़िराक़ कहता है
हश्र का रोज़ किस हिसाब में है

शर्बत-ए-क़ंद की सी शीरीनी
दहन-ए-यार के लुआब में है

शान से कुछ बिगड़ गई शायद
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग पेच-ओ-ताब में है

हो 'सख़ी' को न फ़िक्र या अल्लाह
अर्ज़ इतनी तेरी जनाब में है