लोग लड़ते रहे नाम आए तलब-गारों में
हम कि चुप-चाप खड़े थे तिरे बीमारों में
ज़ुल्म के हम हैं मुख़ालिफ़ मगर इक दिन के लिए
शोर हर रोज़ नया उठता है अख़बारों में
आज-कल शिकवा-ए-नापैद है जिस ग़ैरत का
ख़ूब बिकती है मिरे शहर के बाज़ारों में
फ़ख़्र क्या कम है कि नीलामी-ए-यूसुफ़ में 'नईम'
तही-दामाँ थे मगर थे तो ख़रीदारों में
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ग़ज़ल
लोग लड़ते रहे नाम आए तलब-गारों में
नईम जर्रार अहमद