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लज़्ज़त-ए-लम्स मर न जाए कहीं | शाही शायरी
lazzat-e-lams mar na jae kahin

ग़ज़ल

लज़्ज़त-ए-लम्स मर न जाए कहीं

फ़ारूक़ रहमान

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लज़्ज़त-ए-लम्स मर न जाए कहीं
फिर ये दरिया उतर न जाए कहीं

तुझ को देखा तो देखता ही रहा
अब ये ज़िद्दी नज़र न जाए कहीं

जंग जारी है रिश्ते-नातों में
सब असासा बिखर न जाए कहीं

ख़ून में तर-ब-तर क़बीले हैं
खेल हद से गुज़र न जाए कहीं

मौत पर ए'तिबार है अपना
वो भी अब कि मुकर न जाए कहीं

हाथ सीने पे मिरे रहने दे
दिल की धड़कन ठहर न जाए कहीं

रोज़ जाने की बातें करता है
यार 'फ़ारूक़' पर न जाए कहीं