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लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी | शाही शायरी
laD jate hain saron pe machalti qaza se bhi

ग़ज़ल

लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी

उमर अंसारी

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लड़ जाते हैं सरों पे मचलती क़ज़ा से भी
डरते नहीं चराग़ हमारे हवा से भी

बरसों रहे हैं रक़्स-कुनाँ जिस ज़मीन पर
पहचानती नहीं हमें आवाज़-ए-पा से भी

अब इस को इल्तिफ़ात कहूँ मैं कि बे-रुख़ी
कुछ कुछ हैं मेहरबाँ से भी कुछ कुछ ख़फ़ा से भी

छुप कर न रह सकेगा वो हम से कि उस को हम
पहचान लेंगे उस की किसी इक अदा से भी

दिल काँप काँप उठता है अज़्म-ए-गुनाह पर
मिल जाती है सज़ा हमें पहले ख़ता से भी

अक्सर हुआ है ये कि ख़ुद अपनी तलाश में
आगे निकल गए हैं हद-ए-मा-सिवा से भी