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लबों तक आया ज़बाँ से मगर कहा न गया | शाही शायरी
labon tak aaya zaban se magar kaha na gaya

ग़ज़ल

लबों तक आया ज़बाँ से मगर कहा न गया

यज़दानी जालंधरी

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लबों तक आया ज़बाँ से मगर कहा न गया
फ़साना दर्द का अल-मुख़्तसर कहा न गया

हरीम-ए-नाज़ में क्या बात थी जो राज़ रही
वो हर्फ़ क्या था जो बार-ए-दिगर कहा न गया

ये हादसा भी अजब है कि तेरे ग़म के सिवा
किसी भी ग़म को ग़म-ए-मो'तबर कहा न गया

नफ़स नफ़स में था एहसास-ए-ख़ाना-वीरानी
ख़राबा-ए-ग़म-ए-हस्ती को घर कहा न गया

तलाश करता हूँ ईमा-ए-इल्तिफ़ात अभी
वो क्या नज़र थी कि जिस को नज़र कहा न गया

जुनूँ ने फ़िक्र-ओ-नज़र को वो रिफ़अतें बख़्शीं
ख़िरद को हम से कभी दीदा-वर कहा न गया

न कोई शोर न ग़ौग़ा न हाव-हू न ख़रोश
ख़िज़ाँ को मौसम-ए-देरीना-गर कहा न गया

दिल इज़्तिराब-ए-गुज़ारिश का महशरिसताँ था
किसी के सामने कुछ भी मगर कहा न गया