लब-ओ-रुख़्सार ओ जबीं से मिलिए
जी नहीं भरता कहीं से मिलिए
यूँ न इस दिल के मकीं से मिलिए
आसमाँ बन के ज़मीं से मिलिए
घुट के रह जाती है रुस्वाई तक
क्या किसी पर्दा-नशीं से मिलिए
क्यूँ हरम में ये ख़याल आता है
अब किसी दुश्मन-ए-दीं से मिलिए
जी न बहले रम-ए-आहू से तो फिर
ताएर-ए-सिदरा-नशीं से मिलिए
बुझ गया दिल तो ख़राबी हुई है
फिर किसी शोला-जबीं से मिलिए
वो कोई हाकिम-ए-दौराँ तो नहीं
मत डरें उन की नहीं से मिलिए
ग़ज़ल
लब-ओ-रुख़्सार ओ जबीं से मिलिए
इब्न-ए-सफ़ी