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लब-ए-ख़ामोश में पिन्हाँ है कोई राज़ नहीं | शाही शायरी
lab-e-KHamosh mein pinhan hai koi raaz nahin

ग़ज़ल

लब-ए-ख़ामोश में पिन्हाँ है कोई राज़ नहीं

आदित्य पंत 'नाक़िद'

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लब-ए-ख़ामोश में पिन्हाँ है कोई राज़ नहीं
ज़िंदगी साज़ है जिस में कोई आवाज़ नहीं

क्यूँ न आग़ोश-ए-तख़य्युल में मैं उड़ता ही रहूँ
दर-हक़ीक़त है मुझे ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ नहीं

मेरे किरदार में है नेकी बदी पर भारी
क्यूँ वो कर पाए बदी को नज़र-अंदाज़ नहीं

ये तअ'ल्लुक़ जो किया क़त्अ हुआ क़िस्सा तमाम
ये नई दास्ताँ का नुक़्ता-ए-आग़ाज़ नहीं

रू-ब-रू आइने के जाऊँ तो दिखता है मुझे
अजनबी शख़्स जो हम-शक्ल-ओ-हम-आवाज़ नहीं

हूँ तो हरगिज़ नहीं पाबंद-ए-क़वाएद 'नाक़िद'
अपनी आवारगी पे मुझ को मगर नाज़ नहीं