लब-ए-ख़ामोश में पिन्हाँ है कोई राज़ नहीं
ज़िंदगी साज़ है जिस में कोई आवाज़ नहीं
क्यूँ न आग़ोश-ए-तख़य्युल में मैं उड़ता ही रहूँ
दर-हक़ीक़त है मुझे ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ नहीं
मेरे किरदार में है नेकी बदी पर भारी
क्यूँ वो कर पाए बदी को नज़र-अंदाज़ नहीं
ये तअ'ल्लुक़ जो किया क़त्अ हुआ क़िस्सा तमाम
ये नई दास्ताँ का नुक़्ता-ए-आग़ाज़ नहीं
रू-ब-रू आइने के जाऊँ तो दिखता है मुझे
अजनबी शख़्स जो हम-शक्ल-ओ-हम-आवाज़ नहीं
हूँ तो हरगिज़ नहीं पाबंद-ए-क़वाएद 'नाक़िद'
अपनी आवारगी पे मुझ को मगर नाज़ नहीं
ग़ज़ल
लब-ए-ख़ामोश में पिन्हाँ है कोई राज़ नहीं
आदित्य पंत 'नाक़िद'