लब-ए-जाँ-बख़्श के मीठे का तेरे जो मज़ा पाया
तो चश्मा ज़िंदगी का अपनी लबरेज़-ए-बक़ा पाया
न होए क्यूँ ब-सद जाँ दिल मिरा मफ़्तूँ तिरा जानाँ
कि हर जल्वे में तेरे यक करिश्मा मैं जुदा पाया
दो-बाला क्यूँ न हो नश्शा दिल-ए-हैराँ की हैरत का
जो तुझ को सब में और तेरे में सब को बरमला पाया
तिरी इक गर्दिश-ए-मिज़्गाँ से यूँ बे-ताब-ओ-ताक़त हूँ
न कह सकता हूँ कुछ गर कोई पूछे तू ने क्या पाया
न दुनिया उस में रह पावे न उक़्बा उस को फैलावे
दिल-ए-'आगाह' के कौसर में जिन ने इंज़िवा पाया

ग़ज़ल
लब-ए-जाँ-बख़्श के मीठे का तेरे जो मज़ा पाया
बाक़र आगाह वेलोरी