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लब-ए-जाँ-बख़्श के मीठे का तेरे जो मज़ा पाया | शाही शायरी
lab-e-jaan-baKHsh ke miThe ka tere jo maza paya

ग़ज़ल

लब-ए-जाँ-बख़्श के मीठे का तेरे जो मज़ा पाया

बाक़र आगाह वेलोरी

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लब-ए-जाँ-बख़्श के मीठे का तेरे जो मज़ा पाया
तो चश्मा ज़िंदगी का अपनी लबरेज़-ए-बक़ा पाया

न होए क्यूँ ब-सद जाँ दिल मिरा मफ़्तूँ तिरा जानाँ
कि हर जल्वे में तेरे यक करिश्मा मैं जुदा पाया

दो-बाला क्यूँ न हो नश्शा दिल-ए-हैराँ की हैरत का
जो तुझ को सब में और तेरे में सब को बरमला पाया

तिरी इक गर्दिश-ए-मिज़्गाँ से यूँ बे-ताब-ओ-ताक़त हूँ
न कह सकता हूँ कुछ गर कोई पूछे तू ने क्या पाया

न दुनिया उस में रह पावे न उक़्बा उस को फैलावे
दिल-ए-'आगाह' के कौसर में जिन ने इंज़िवा पाया