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लाख देखूँ तुझे फिरती नहीं निय्यत मेरी | शाही शायरी
lakh dekhun tujhe phirti nahin niyyat meri

ग़ज़ल

लाख देखूँ तुझे फिरती नहीं निय्यत मेरी

मरदान सफ़ी

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लाख देखूँ तुझे फिरती नहीं निय्यत मेरी
दिल है क़ाबू में मिरा अब न तबीअ'त मेरी

आ के पहलू में मिरे बैठ मैं हो जाऊँ निसार
है तमन्ना तो यही है यही हसरत मेरी

दम-ए-आख़िर तू मिरे पास भला आ बे-दर्द
तेरी फ़ुर्क़त में कोई दम में है रुख़्सत मेरी

क़ब्र पर मेरी अगर फ़ातिहा पढ़ने के लिए
वो जो आ जाएँ तो थर्रा उठे तुर्बत मेरी

तुम को देखा करूँ हर वक़्त सरापा हूँ फ़ना
करती रह रह के तक़ाज़ा है ये हालत मेरी

ज़िंदा दरगोर हूँ लेकिन मुझे ज़िंदा न समझ
एक मुद्दत जो यही रह गई हालत मेरी

कुश्ता-ए-नाज़ हूँ जिन का है उन्हीं का कौनैन
सर्वत-ए-जम से उठेगी वो है मय्यत मेरी

बा'द-ए-मुर्दन भी मैं बीमार-ए-मोहब्बत ही रहूँ
ता-क़यामत न हो यारब कभी सेहत मेरी

हेच दुनिया है ज़र-ओ-माल है सब हेच मगर
इक मोहब्बत तिरी 'मर्दां' है ये दौलत मेरी