EN اردو
क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग | शाही शायरी
kyunkar shikar-e-husn na khelen yahan ke log

ग़ज़ल

क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग

मुनीर शिकोहाबादी

;

क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग
परियों को फाँस लेते हैं हिन्दोस्ताँ के लोग

आपस में एक दूसरे से आश्ना नहीं
ज़ेर-ए-ज़मीं भरे हैं इलाही कहाँ के लोग

बाग़-ए-जहाँ से जाते नहीं जानिब-ए-बहिश्त
नाहक़ तमांचे खाते हैं बाद-ए-ख़िज़ाँ के लोग

शहर-ए-वफ़ा का सज्दा-ए-शुकराना है यही
पत्थर से सर पटकते हैं शहर-ए-बुताँ के लोग

ज़ुन्नार से है कम रग-ए-जाँ जिस के सामने
बंदे हुए हैं उस बुत-ए-नामेहरबाँ के लोग

अपनी ख़बर ले औरों से क्या काम ऐ 'मुनीर'
किस का ज़माना कौन सी बस्ती कहाँ के लोग