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क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम | शाही शायरी
kyun KHayal-e-ranj-o-rahat se na hon begana hum

ग़ज़ल

क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम

नातिक़ गुलावठी

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क्यूँ ख़याल-ए-रंज-ओ-राहत से न हों बेगाना हम
जल्वा-गाह-ए-यार है दिल यानी ख़ल्वत-ख़ाना हम

हैं कभी वाइज़ कभी हैं मुर्शिद-ए-मय-ख़ाना हम
घूमते जाते हैं हस्ब-ए-गर्दिश-ए-पैमाना हम

लाख पर भारी हैं तेरी दस्त-गीरी चाहिए
क्यूँ किसी पे बार हों ऐ हिम्मत-ए-मर्दाना हम

खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
ऐ अजल कब तक रहेंगे रहन-ए-आब-ओ-दाना हम

तू हमें कहता है दीवाना तो दीवाने सही
पंद-गो आख़िर तुझे अब क्या कहें दीवाना हम

मुद्दई दिल इश्क़ आईन-ओ-अदालत बज़्म-ए-नाज़
दीद-बाज़ी जुर्म मुजरिम आँख है जुर्माना हम

आब-ए-अश्क-ओ-आतिश-ए-शौक़-ओ-हवा-ए-आह से
हैं वजूद-आराई-ए-ख़ाकिस्तर-ए-परवाना हम

गुम है नाम-ए-आमिरी ख़ूब ऐ निगाह-ए-सामरी
तेरे अफ़्सूँ से बने हैं ज़ीनत-ए-अफ़्साना हम

वज्ह-ए-रुस्वाई है 'नातिक़' मस्ती-ए-बज़्म-ए-सुख़न
बादा-पैमा हैं ब-जाम-ए-ग़ालिब-ए-मस्ताना हम