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क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक | शाही शायरी
kyun ho bahana-ju na qaza sar se panw tak

ग़ज़ल

क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक

शाद अज़ीमाबादी

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क्यूँ हो बहाना-जू न क़ज़ा सर से पाँव तक
ज़ालिम हैं आप की है अदा सर से पाँव तक

साकित हैं बाद-ए-मर्ग क़वा सर से पाँव तक
मोहरें लगा गई है क़ज़ा सर से पाँव तक

घेरे थी तुझ को बर्क़-ए-अदा सर से पाँव तक
क्यूँ नख़्ल-ए-तूर जल न गया सर से पाँव तक

ज़ंजीर बन गई है क़ज़ा सर से पाँव तक
गोया रगें हैं दाम-ए-बला सर से पाँव तक

मैं ख़ुद ज़बान-ए-शुक्र बना सर से पाँव तक
डूबे न क्यूँ असर में दुआ सर से पाँव तक

मुँह चाँद उस पे ज़ुल्फ़-ए-रसा सर से पाँव तक
क्यूँ लोट-पोट हो न अदा सर से पाँव तक

सिद्क़ ओ सफ़ा सिखाता है नज़्ज़ारा-बाज़ को
आईना-ए-जमाल तिरा सर से पाँव तक

क़ासिद कहे गया मिरी ज़र्दी-ए-रुख़ का हाल
इस दास्ताँ को ख़ूब रंगा सर से पाँव तक

ऐ शम्अ तुझ से साफ़ मैं कहता हूँ दिल का हाल
जलना ही था तो जल न गया सर से पाँव तक

पीरी में काँपने लगे आज़ा-ए-जिस्म सब
हुश्यार हिल गई ये बिना सर से पाँव तक

शायद ख़िज़ाँ सबा का फ़साना सुना गई
हर नख़्ल-ए-बाग़ काँप गया सर से पाँव तक

दरिया-ए-इश्क़ में मुझे रखना न था क़दम
डूबा तो ख़ूब डूब गया सर से पाँव तक

ली नख़्ल-ए-तूर की न ख़बर तुम ने ऐ कलीम
तुम देखते रहे वो जला सर से पाँव तक

आग़ाज़ ही में आप ने कर दी ज़बान बंद
क़िस्सा हमारा सुन न लिया सर से पाँव तक

फैलाएँ या न हाथ को फैलाएँ शर्म से
दस्त-ए-तलब हैं तेरे गदा सर से पाँव तक

तेरा कहाँ जमाल कहाँ जल्वा-गाह-ए-तूर
मूसा न फिर न देख लिया सर से पाँव तक

अल्लाह 'शाद' ग़ैर की ये ऐब-जूईयाँ
तू ख़ुद पे कर निगाह ज़रा सर से पाँव तक