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क्यूँ हर उरूज को यहाँ आख़िर ज़वाल है | शाही शायरी
kyun har uruj ko yahan aaKHir zawal hai

ग़ज़ल

क्यूँ हर उरूज को यहाँ आख़िर ज़वाल है

सग़ीर मलाल

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क्यूँ हर उरूज को यहाँ आख़िर ज़वाल है
सोचें अगर तो सिर्फ़ यही इक सवाल है

बाला-ए-सर फ़लक है तो ज़ेर-ए-क़दम है ख़ाक
उस बे-नियाज़ को मिरा कितना ख़याल है

लम्हा यही जो इस घड़ी आलम पे है मुहीत
होने की इस जहान में तन्हा मिसाल है

आख़िर हुई शिकस्त तो अपनी ज़मीन पर
अपने बदन से मेरा निकलना मुहाल है

सूरज है रौशनी की किरन इस जगह 'मलाल'
वुसअत में काएनात अंधेरे का जाल है