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क्यूँ आसमान-ए-हिज्र के तारे चले गए | शाही शायरी
kyun aasman-e-hijr ke tare chale gae

ग़ज़ल

क्यूँ आसमान-ए-हिज्र के तारे चले गए

फ़ैसल फेहमी

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क्यूँ आसमान-ए-हिज्र के तारे चले गए
अब क्या हुआ जो ख़्वाब तुम्हारे चले गए

साक़ी के दर पे आज बग़ावत के शोर में
हम जाम जाम जाम पुकारे चले गए

रूठा हुआ है चाँद बहुत आफ़्ताब से
और चाँदनी को ढूँडने तारे चले गए

इस दस्त-ए-इख़्तियार में इक जान ही तो थी
हम तुम पे अपनी जान को वारे चले गए

बे-मेहर ज़िंदगी का गुज़ारा न हो सका
हम बार बार इश्क़ में हारे चले गए