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क्या ज़मीं क्या आसमाँ कुछ भी नहीं | शाही शायरी
kya zamin kya aasman kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

क्या ज़मीं क्या आसमाँ कुछ भी नहीं

आफ़ाक़ सिद्दीक़ी

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क्या ज़मीं क्या आसमाँ कुछ भी नहीं
हम न हों तो ये जहाँ कुछ भी नहीं

दीदा-ओ-दिल की रिफ़ाक़त के बग़ैर
फ़स्ल-ए-गुल हो या ख़िज़ाँ कुछ भी नहीं

पत्थरों में हम भी पत्थर हो गए
अब ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ कुछ भी नहीं

क्या क़यामत है कि अपने देस में
ए'तिबार-ए-जिस्म-ओ-जाँ कुछ भी नहीं

कैसे कैसे सर-कशीदा लोग थे
जिन का अब नाम-ओ-निशाँ कुछ भी नहीं

एक एहसास-ए-मोहब्बत के सिवा
हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ कुछ भी नहीं

कोई मौज़ू-ए-सुख़न ही जब न हो
सिर्फ़ अंदाज़-ए-बयाँ कुछ भी नहीं