क्या ज़मीं क्या आसमाँ कुछ भी नहीं
हम न हों तो ये जहाँ कुछ भी नहीं
दीदा-ओ-दिल की रिफ़ाक़त के बग़ैर
फ़स्ल-ए-गुल हो या ख़िज़ाँ कुछ भी नहीं
पत्थरों में हम भी पत्थर हो गए
अब ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ कुछ भी नहीं
क्या क़यामत है कि अपने देस में
ए'तिबार-ए-जिस्म-ओ-जाँ कुछ भी नहीं
कैसे कैसे सर-कशीदा लोग थे
जिन का अब नाम-ओ-निशाँ कुछ भी नहीं
एक एहसास-ए-मोहब्बत के सिवा
हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ कुछ भी नहीं
कोई मौज़ू-ए-सुख़न ही जब न हो
सिर्फ़ अंदाज़-ए-बयाँ कुछ भी नहीं
ग़ज़ल
क्या ज़मीं क्या आसमाँ कुछ भी नहीं
आफ़ाक़ सिद्दीक़ी