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क्या ये आफ़त नहीं अज़ाब नहीं | शाही शायरी
kya ye aafat nahin azab nahin

ग़ज़ल

क्या ये आफ़त नहीं अज़ाब नहीं

जौन एलिया

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क्या ये आफ़त नहीं अज़ाब नहीं
दिल की हालत बहुत ख़राब नहीं

बूद पल पल की बे-हिसाबी है
कि मुहासिब नहीं हिसाब नहीं

ख़ूब गाव बजाओ और पियो
इन दिनों शहर में जनाब नहीं

सब भटकते हैं अपनी गलियों में
ता-ब-ख़ुद कोई बारयाब नहीं

तू ही मेरा सवाल अज़ल से है
और साजन तिरा जवाब नहीं

हिफ़्ज़ है शम्स-ए-बाज़ग़ा मुझ को
पर मयस्सर वो माहताब नहीं

तुझ को दिल-दर्द का नहीं एहसास
सो मिरी पिंडलियों को दाब नहीं

नहीं जुड़ता ख़याल को भी ख़याल
ख़्वाब में भी तो कोई ख़्वाब नहीं

सतर-ए-मू उस की ज़ेर-ए-नाफ़ की हाए
जिस की चाक़ू-ज़नों को ताब नहीं