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क्या वस्ल की साअत को तरसने के लिए था | शाही शायरी
kya wasl ki saat ko tarasne ke liye tha

ग़ज़ल

क्या वस्ल की साअत को तरसने के लिए था

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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क्या वस्ल की साअत को तरसने के लिए था
दिल शहर-ए-तमन्ना तिरे बसने के लिए था

सहरा में बगूलों की तरह नाच रहा हूँ
फ़ितरत से मैं बादल था बरसने के लिए था

रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए था

कुछ रात का एहसाँ है न सूरज का करम है
ग़ुंचा तो बहर-हाल बिकसने के लिए था

इस राह से गुज़रा हूँ जहाँ साँस न दे साथ
हर नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मिरे डसने के लिए था

हर क़तरा मिरी आँख से बहने को था बेताब
हर ज़र्रा मिरे पाँव झुलसने के लिए था