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क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त | शाही शायरी
kya nam-e-KHuda apni bhi ruswai hai kam-baKHt

ग़ज़ल

क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त

नज़ीर अकबराबादी

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क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त
रुस्वाइ-ए-मजनूँ भी तमाशाई है कम-बख़्त

लड़ने को लड़े उस से पर अब करते हैं अफ़सोस
अफ़सोस अजब अपनी भी दानाई है कम-बख़्त

इक बात भी मिल कर न करें उस से हम ऐ चर्ख़
क्या तुझ को यही बात पसंद आई है कम-बख़्त

हमदम तो यही कहते हैं चल बज़्म में उस की
क्या कहिए उसे अपनी जो ख़ुद-राई है कम-बख़्त

वो तो नहीं वाक़िफ़ प हमीं दिल में ख़जिल हैं
किस मुँह से कहें हम ने क़सम खाई है कम-बख़्त

यारो हमें तकलीफ़ न दो सैर-ए-चमन की
आने दो बला से जो बहार आई है कम-बख़्त

रहने दो हमें कुंज-ए-क़फ़स में कि हमारे
क़िस्मत में यही गोशा-ए-तन्हाई है कम-बख़्त

इस जाम-ए-निगूँ से मय-ए-राहत न तलब कर
याँ बादा नहीं बादिया-पैमाई है कम-बख़्त

तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त