क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त 
रुस्वाइ-ए-मजनूँ भी तमाशाई है कम-बख़्त 
लड़ने को लड़े उस से पर अब करते हैं अफ़सोस 
अफ़सोस अजब अपनी भी दानाई है कम-बख़्त 
इक बात भी मिल कर न करें उस से हम ऐ चर्ख़ 
क्या तुझ को यही बात पसंद आई है कम-बख़्त 
हमदम तो यही कहते हैं चल बज़्म में उस की 
क्या कहिए उसे अपनी जो ख़ुद-राई है कम-बख़्त 
वो तो नहीं वाक़िफ़ प हमीं दिल में ख़जिल हैं 
किस मुँह से कहें हम ने क़सम खाई है कम-बख़्त 
यारो हमें तकलीफ़ न दो सैर-ए-चमन की 
आने दो बला से जो बहार आई है कम-बख़्त 
रहने दो हमें कुंज-ए-क़फ़स में कि हमारे 
क़िस्मत में यही गोशा-ए-तन्हाई है कम-बख़्त 
इस जाम-ए-निगूँ से मय-ए-राहत न तलब कर 
याँ बादा नहीं बादिया-पैमाई है कम-बख़्त 
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह 
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त
 
        ग़ज़ल
क्या नाम-ए-ख़ुदा अपनी भी रुस्वाई है कम-बख़्त
नज़ीर अकबराबादी

