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क्या मसर्रत है पूछिए हम से | शाही शायरी
kya masarrat hai puchhiye humse

ग़ज़ल

क्या मसर्रत है पूछिए हम से

आसी रामनगरी

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क्या मसर्रत है पूछिए हम से
है इबारत हर इक ख़ुशी ग़म से

अरक़-आलूद आप का चेहरा
हो धुला फूल जैसे शबनम से

ज़ब्त-ए-गिर्या से राज़-ए-ग़म था छुपा
खुल गया आज चश्म-ए-पुर-नम से

दर्द-ए-दिल का नहीं कोई दरमाँ
ज़ख़्म क्या मुंदमिल हो मरहम से

दर-हक़ीक़त क़रीब रहते हैं
वो ब-ज़ाहिर ही दूर हैं हम से

जब अज़ल से ख़ता ज़मीर में है
क्यूँ ख़ता हो न इब्न-ए-आदम से