क्या क्या न तेरे सदमे से बाद-ए-ख़िज़ाँ गिरा
गुल बर्ग सर्व फ़ाख़्ता का आशियाँ गिरा
लिखने लगी क़ज़ा जो हमारी फ़तादगी
सौ बार हाथ से क़लम-ए-दो-ज़बाँ गिरा
जब पहुँचे हम किनारा-ए-मक़्सूद के क़रीब
तब नाख़ुदा जहाँ से उठा बादबाँ गिरा
मूबाफ़-ए-सुर्ख़ चोटी से क्या उन की खुल पड़ा
एक साइक़ा सा दिल पे मिरे ना-गहाँ गिरा
ता आसमाँ पहुँच के हुई आह सर-निगूँ
या रब हो ख़ैर फ़ौज-ए-अलम का निशाँ गिरा
उठ कर चला जो पास से उन के तो घर तलक
हर हर क़दम पे ज़ोफ़ से मैं ना-तवाँ गिरा
देखा जो दश्त-ए-नज्द में हाल-ए-तबाह-ए-क़ैस
महमिल से लैला कूद पड़ी सार-बाँ गिरा
दोज़ख़ पे क्यूँ न हो दिल-ए-'बीमार' ताना-ज़न
आतिश से इश्क़ की है पतिंगा यहाँ गिरा
ग़ज़ल
क्या क्या न तेरे सदमे से बाद-ए-ख़िज़ाँ गिरा
शैख़ अली बख़्श बीमार