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क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और | शाही शायरी
kya kahun ghuncha-e-gul nim-dahan hai kuchh aur

ग़ज़ल

क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और

शाद लखनवी

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क्या कहूँ ग़ुंचा-ए-गुल नीम-दहाँ है कुछ और
ला-कलामी है वहाँ बात यहाँ है कुछ और

बुझ गई आतिश-ए-गुल देख तू ऐ दीदा-ए-तर
क्या सुलगता है जो पहलू में धुआँ है कुछ और

पानी उस में से भरें इस में गिरें यूसुफ़-ए-दिल
चश्मा-ए-चाह-ए-ज़क़न और कुआँ है कुछ और

जीते-जी मौत का डर बा'द-ए-फ़ना ख़ौफ़-ए-अज़ाब
जुज़ ग़म-ओ-रंज यहाँ है न वहाँ है कुछ और

हुस्न-ए-सूरत पे न जा देख वहीं मा'नी को
एक हैं का'बा-ओ-बुत-ख़ाना कहाँ है कुछ और

तुम समझते हो मिरी बे-ज़ेहनी में है कलाम
लब-ए-गोया की क़सम ज़िक्र यहाँ है कुछ और

बादा-कश वो हूँ करूँ शीशे के शीशे ख़ाली
पर लगाऊँ यही रट नश्शे में हाँ है कुछ और

क़िस्मत-ए-'शाद' में जुज़ ग़म जो यहाँ कुछ भी नहीं
ऐ हवस ले चल उधर को कि जहाँ है कुछ और