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क्या ही तपता है सुलगता है धुआँ देता है | शाही शायरी
kya hi tapta hai sulagta hai dhuan deta hai

ग़ज़ल

क्या ही तपता है सुलगता है धुआँ देता है

राहील फ़ारूक़

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क्या ही तपता है सुलगता है धुआँ देता है
हिज्र की शाम तो दिल बाँध समाँ देता है

कौन कम्बख़्त न चाहेगा निकलना लेकिन
इतनी मोहलत ही तिरा दाम कहाँ देता है

क़ौल तो एक भी पूरा न हुआ अब देखूँ
क्या दलील उस की मिरा शो'ला-बयाँ देता है

तब-ए-नाज़ुक पे गुज़रता है गराँ तो गुज़रे
ज़ेब वहशी को यही तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ देता है

ख़ास बंदों को पुकारेगा इधर तो रिज़वाँ
दावत-ए-आम इधर शहर-ए-बुताँ देता है

एक मुद्दत से बदन बर्फ़ है लेकिन अब तक
करवटें दिल को कोई सोज़ निहाँ देता है

नाज़नीं पढ़ते हैं 'राहील' की ग़ज़लें क्या ख़ूब
दाद हर शे'र की हर पीर-ओ-जवाँ देता है