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क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है | शाही शायरी
kya hi rah rah ke tabiat meri ghabraati hai

ग़ज़ल

क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है

अकबर इलाहाबादी

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क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है
मौत आती है शब-ए-हिज्र न नींद आती है

वो भी चुप बैठे हैं अग़्यार भी चुप मैं भी ख़मोश
ऐसी सोहबत से तबीअ'त मिरी घबराती है

क्यूँ न हो अपनी लगावट की नज़र पर नाज़ाँ
जानते हो कि दिलों को ये लगा लाती है

बज़्म-ए-इशरत कहीं होती है तो रो देता हूँ
कोई गुज़री हुई सोहबत मुझे याद आती है