क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है
मौत आती है शब-ए-हिज्र न नींद आती है
वो भी चुप बैठे हैं अग़्यार भी चुप मैं भी ख़मोश
ऐसी सोहबत से तबीअ'त मिरी घबराती है
क्यूँ न हो अपनी लगावट की नज़र पर नाज़ाँ
जानते हो कि दिलों को ये लगा लाती है
बज़्म-ए-इशरत कहीं होती है तो रो देता हूँ
कोई गुज़री हुई सोहबत मुझे याद आती है
ग़ज़ल
क्या ही रह रह के तबीअ'त मिरी घबराती है
अकबर इलाहाबादी