क्या ग़ज़ब है कि मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं
और अब उस को भुलाना कोई आसाँ भी नहीं
किसे देखूँ किसे आँखों से लगाऊँ ऐ दिल
रू-ए-ताबाँ भी नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ भी नहीं
और हैं आज ठिकाने तिरे दीवानों के
कोह-ओ-सहरा भी नहीं दश्त-ओ-बयाबाँ भी नहीं
जाने क्या बात है सब अहल-ए-जुनूँ हैं ख़ामोश
आज वो सिलसिला-ए-चाक-ए-गरेबाँ भी नहीं
ग़म-ए-पिन्हाँ नज़र आता है मुझे दुश्मन-ए-जाँ
हाए ये दर्द कि जिस का कोई दरमाँ भी नहीं
कौन जाने मिरा अंजाम सहर तक क्या हो
आज कोई दिल-ए-बीमार का पुरसाँ भी नहीं
हाए ये घर कि अब इस में नहीं बस्ता कोई
हैफ़ ये दिल कि अब इस में कोई अरमाँ भी नहीं
उफ़ ये तन्हाई ये वहशत ये सुकूत-ए-शब-ए-तार
और शबिस्ताँ में कोई शम-ए-फ़रोज़ाँ भी नहीं
साथ उस गुल के गया दिल से गुलिस्ताँ का ख़याल
अब मुझे आरज़ू-ए-फ़स्ल-ए-बहाराँ भी नहीं
ग़ज़ल
क्या ग़ज़ब है कि मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं
राम कृष्ण मुज़्तर