EN اردو
क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला | शाही शायरी
kya bhala mujhko parakhne ka natija nikla

ग़ज़ल

क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला

मुज़फ़्फ़र वारसी

;

क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंटों पर
डूब कर भी तिरे दरिया से मैं प्यासा निकला

जब कभी तुझ को पुकारा मिरी तन्हाई ने
बू उड़ी फूल से तस्वीर से साया निकला

कोई मिलता है तो अब अपना पता पूछता हूँ
मैं तिरी खोज में तुझ से भी परे जा निकला

मुझ से छुपता ही रहा तू मुझे आँखें दे कर
मैं ही पर्दा था उठा मैं तो तमाशा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तू ने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

नज़र आया था सर-ए-बाम 'मुज़फ़्फ़र' कोई
पहुँचा दीवार के नज़दीक तो साया निकला