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कू-ए-जानाँ में और क्या माँगो | शाही शायरी
ku-e-jaanan mein aur kya mango

ग़ज़ल

कू-ए-जानाँ में और क्या माँगो

जौन एलिया

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कू-ए-जानाँ में और क्या माँगो
हालत-ए-हाल यक सदा माँगो

हर-नफ़स तुम यक़ीन-ए-मुनइम से
रिज़्क़ अपने गुमान का माँगो

है अगर वो बहुत ही दिल नज़दीक
उस से दूरी का सिलसिला माँगो

दर-ए-मतलब है क्या तलब-अंगेज़
कुछ नहीं वाँ सो कुछ भी जा माँगो

गोशा-गीर-ए-ग़ुबार-ए-ज़ात हूँ में
मुझ में हो कर मिरा पता माँगो

मुनकिरान-ए-ख़ुदा-ए-बख़शिंदा
उस से तो और इक ख़ुदा माँगो

उस शिकम-रक़्स-गर के साइल हो
नाफ़-प्याले की तुम अता माँगो

लाख जंजाल माँगने में हैं
कुछ न माँगो फ़क़त दुआ माँगो